
जबलपुर। मध्य प्रदेश को ‘मप्र’ या ‘एमपी’ लिखने के खिलाफ दायर जनहित याचिका को हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया है। अदालत ने साफ कहा कि इससे राज्य की पहचान कमजोर नहीं होती, बल्कि यह उसे और अधिक सुलभ बनाती है।
कोर्ट का तर्क: संक्षेप में ताकत
मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय सराफ की युगलपीठ ने कहा कि संक्षिप्त नामों का उपयोग केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में किया जाता है। जैसे यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका को यूएसए और यूनाइटेड किंगडम को यूके कहा जाता है।
जनहित याचिका में क्या कहा गया
याचिकाकर्ता भोपाल निवासी वीके नस्वा ने खुद कोर्ट में पक्ष रखा। उन्होंने दलील दी कि हमारे प्रदेश का संवैधानिक नाम “मध्य प्रदेश” है। इसके बावजूद 90% लोग इसे बोलचाल में और 80% लोग लिखित रूप में ‘मप्र’ या ‘एमपी’ कहते हैं।
सरकार को दिशा-निर्देश की मांग
याचिका में यह मांग की गई कि राज्य और केंद्र सरकार को निर्देशित किया जाए कि किसी भी दस्तावेज या संवाद में राज्य को ‘एमपी’ या ‘मप्र’ के रूप में न लिखा जाए।
कोर्ट का जवाब: सुविधा और व्यावहारिकता जरूरी
कोर्ट ने कहा कि लिखने में समय और स्थान बचाने के लिए संक्षिप्त शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। इससे संचार तेज, सरल और व्यावहारिक बनता है। उदाहरण के लिए, वाहनों के नंबर, टैक्स कोड और प्रशासनिक प्रक्रियाओं में यह संक्षिप्त नाम जरूरी होते हैं।
जनहित साबित नहीं कर पाए याचिकाकर्ता
अदालत ने टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता यह स्पष्ट नहीं कर सके कि इस मामले में जनहित कहां निहित है। इस आधार पर कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया।